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शनिवार, 14 मई 2016

राजस्थान के विकास पुरूष श्री भैरोसिंह शेखावत 
श्री भैरो सिंह जी शेखावत एक सम्मानित भारतीय राजनेता और देश के उप-राष्ट्रपति थे। वह एकमात्र ऐसे नेता थे जिन्होंने 1952 से राजस्थान के सभी चुनावों में जीत दर्ज की (1972 में विधानसभा चुनाव को छोड़कर)। भारतीय राजनीति में वह दक्ष और परिपक्व नेता के रूप में जाने जाते थे। विश्व बैंक के अध्यक्ष रॉबर्ट मैकनामरा ने शेखावत को ‘‘ भारत का रॉकफेलर‘‘ कहा था। उन्हें पुलिस और अफसरशाही व्यवस्था पर कुशल प्रशासन के लिए जाना जाता है। इसके अलावा भैरों सिंह शेखावत को राजस्थान में औद्योगिक और आर्थिक विकास के पिता के तौर पर भी जाना जाता है। राज्यसभा में उन्हें अतुलनीय प्रशासन और काम-काज के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय नेताओं से सराहना मिली। भैरों सिंह शेखावत को भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भारत के सबसे ऊँचे नेता के तौर पर संबोधित किया था।
प्रारंभिक जीवन
भैरों सिंह शेखावत का जन्म 23 अक्टूबर 1923 को राजस्था के सीकर जिले में खचारीवास गांव में हुआ। वह श्री देवी सिंह शेखावत और श्रीमती बन्ने कंवर के पुत्र थे। उन्होंने अपनी स्कूल की शिक्षा पूरी ही की थी कि पिता जी का निधन हो गया जिसके कारण आगे की पढ़ाई नहीं कर सके। पिता के निधन के बाद परिवार की जिम्मेदारी उन पर आ गई। उन्होंने प्रारंभ में खेती की और बाद में पुलिस में सब-इंस्पेक्टर बन गए। 
भैरों सिंह शेखावत ने 1952 में राजनीति में प्रवेश किया। 1952 से 1972 तक वह राजस्थान विधानसभा के सदस्य रहे। 1967 के चुनाव में भारतीय जनसंघ और सहयोगी स्वतंत्र पार्टी बहुमत के नजदीक तो आई लेकिन सरकार नहीं बना सकी। 1974 से 1977 तक उन्होंने राज्यसभा सदस्य के तौर पर अपनी सेवाएं दीं। 1977 से 2002 वह राजस्थान विधानसभा के सदस्य रहे। 1977 में 200 में से 151 सीटों पर कब्जा करके उनकी पार्टी ने चुनाव में जीत दर्ज की और वह राजस्थान के मुख्यमंत्री बने। उन्होंने 1980 तक अपनी सेवाएं दीं। 1980 में भारतीय जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी के विघटन के बाद वह बीजेपी में शामिल हो गए और 1990 तक नेता प्रतिपक्ष की भूमिका निभाई। 1984 में श्रीमती इंदिरा गांधी के शासनकाल में बीजेपी चुनाव हार गई। इसके बाद 1989 के चुनाव में बीजेपी-जनता दल गठबंधन ने लोकसभा में 25 सीटें जीतीं और राजस्थान विधानसभा चुनाव में 140 सीटों पर कब्जा किया। 1990 में भैरों सिंह शेखावत फिर से राजस्थान के मुख्यमंत्री बने और 1992 तक पद पर बने रहे। उनके नेतृत्व में बीजेपी ने अगले चुनाव में 99 सीटें जीतीं। इस प्रकार स्वतंत्र समर्थकों के सहयोग से वह सरकार बनाने में सक्षम हो गए लेकिन कांग्रेस इसके विरोध में थी। 1993 में लगातार तीसरी बार वह राजस्थान के मुख्यमंत्री बने और पांच साल तक रहे। 1998 में वह प्याज की बढ़ती कीमतों जैसे मुद्दों के कारण चुनाव हार गए। इसके बाद 1999 में बीजेपी ने लोकसभा चुनाव में जीत दर्ज की। इस बार बीजेपी को राजस्थान में 25 में से 16 लोकसभा सीटों पर जीत मिली। वर्ष 2002 में भैरों सिंह शेखावत सुशील कुमार शिंदे को हराकर देश के उपराष्ट्रपति चुने गए। विपक्षी दल को 750 में से 149 मत मिले। जुलाई 2007 में उन्होंने नेशनल डेमोक्रेटिक अलाइंस के समर्थन से निर्दलीय राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ा, लेकिन दुर्भाग्यवश वह चुनाव हार गए और श्रीमती प्रतिभा पाटिल चुनाव जीतीं और देश की राष्ट्रपति बनीं। इसके बाद भैरों सिंह शेखावत ने 21 जुलाई 2007 को उपराष्ट्रपति पद से इस्तीफा दे दिया।
पुरस्कार और सम्मान
भैरों सिंह शेखावत को उनकी कई उपलब्धियों और विलक्षण गुणों के चलते आंध्रा विश्वविद्यालय विशाखापट्टनम, महात्मागांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी, और मोहनलाल सुखाडि़या विश्वविद्यालय, उदयपु,र ने डीलिट की उपाधि प्रदान की। एशियाटिक सोसायटी ऑफ मुंबई ने उन्हें  फैलोशिप से सम्मानित किया तथा येरेवन स्टेट मेडिकल यूनिवर्सिटी अर्मेनिया द्वारा उन्हें गोल्ड मेडल के साथ मेडिसिन डिग्री की डॉक्टरेट उपाधि प्रदान की गई।
मृत्यु
भैरों सिंह शेखावत का निधन 15 मई 2010 को जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल में हो गया। वह कैंसर से भी पीडि़त थे। उनके अंतिम संस्कार में प्रसिद्ध राजनेताओं के अलावा हजारों लोग शामिल हुए।

सोमवार, 22 जून 2015

जनसंघ के संस्थापक डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी

जनसंघ के संस्थापक डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई, 1901 को एक प्रसिद्ध बंगाली परिवार में हुआ था
डॉ. क्ता के रूप में उभरे और शीघ्र ही 'हिन्दू महासभा' में शामिल हो गए। सन 1944 में वे इसके अध्यक्ष नियुक्त किये गए थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने आजादी के समय  विभाजन का भीकड़ा विरोध किया।
   मुखर्जी चाहते थे कि हिन्दू महासभा मुखर्जी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्रथम श्रेणी में 1921 में प्राप्त की थी। इसके बाद उन्होंने 1923 में एम.ए. और 1924में बी.एल. किया। वे 1923 में ही सीनेट के सदस्य बन गये थे। उन्होंने अपने पिता की मृत्यु के बाद कलकता उच्च न्यायालय में एडवोकेट के रूप में अपना नाम दर्ज कराया। बाद में वे सन 1926 में 'लिंकन्स इन' में अध्ययन करने के लिए इंग्लैंड चले गए और 1927 में बैरिस्टर बन गए।डॉ. मुखर्जी तैंतीस वर्ष की आयु में कलकत्ता विश्वविद्यालय में विश्व के सबसे कम उम्र के कुलपति बनाये गए थे। इस पद को उनके पिता भी सुशोभित कर चुके थे।
 बाद में  राष्ट्रीय एकात्मता एवं अखण्डता के प्रति आगाध श्रद्धा ने  डॉ. मुखर्जी को राजनीति के समर में झोंक दिया। वेहिन्दुओं के प्रवको केवल हिन्दुओं तक ही सीमित न रखा जाए. मुखर्जी जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संघचालक गुरु गोलवलकर जी से परामर्श करने के बाद 21 अक्तूबर1951 को दिल्ली में 'भारतीय जनसंघ' की नींव रखी और इसके पहले अध्यक्ष बने।
   विभजन के पश्चात  मुखर्जी जम्मू-कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने जोरदार नारा भी दिया कि- एक देश में दो निशान, एक देश में दो प्रधान, एक देश में दो विधान नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे। अगस्त, 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि "या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊँगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा।"
   जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने पर डॉ. मुखर्जी को 11 मई, 1953 में शेख़ अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली सरकार ने हिरासत में ले लिया, क्योंकि उन दिनों कश्मीर में प्रवेश करने के लिए भारतीयों को एक प्रकार से पासपोर्ट के समान एक परमिट लेना पडता था और डॉ. मुखर्जी बिना परमिट लिए जम्मू-कश्मीर चले गए थे, जहाँ उन्हें गिरफ्तार कर नजरबंद कर लिया गया। वहाँ गिरफ्तार होने के कुछ दिन बाद ही 23 जून, 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु का खुलासा आज तक नहीं हो सका है। भारत की अखण्डता के लिए आज़ाद भारत में यह पहला बलिदान था। इसका परिणाम यह हुआ कि शेख़ अब्दुल्ला हटा दिये गए । 'धारा 370' के बावजूद कश्मीर आज भारत का अभिन्न अंग बना हुआ है। इसका सर्वाधिक श्रेय डॉ. मुखर्जी को ही दिया जाता है।

रविवार, 22 जून 2014

मानवता के उपासक भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी -पुण्यतिथि पर कोटि कोटि नमन ,सादर श्रद्धांजली.....


      डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म- 6 जुलाई, 1901को प्रसिद्ध बंगाली परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम जोगमाया देवी मुखर्जी था और पिता आशुतोष मुखर्जी बंगाल के एक जाने-माने व्यक्ति और कुशल वकील थे.23 जून, 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। 
  जिस प्रकार हैदराबाद को भारत में विलय करने का श्रेय सरदार पटेल को जाता है, ठीक उसी प्रकार बंगाल, पंजाब और कश्मीर के अधिकांश भागों को भारत का अभिन्न अंग बनाये रखने की सफलता प्राप्ति में डॉ. मुखर्जी के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। एक महान शिक्षाविद और चिन्तक होने के साथ साथ भारतीय जनसंघ के संस्थापक भी थे। उन्हें आज भी एक प्रखर राष्ट्रवादी और कट्टर देशभक्त के रूप में याद किया जाता है। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक और सिद्धांतों के पक्के इंसान थे। संसद में उन्होंने सदैव राष्ट्रीय एकता की स्थापना को ही अपना प्रथम लक्ष्य रखा था। संसद में दिए अपने भाषण में उन्होंने पुरजोर शब्दों में कहा था कि "राष्ट्रीय एकता के धरातल पर ही सुनहरे भविष्य की नींव रखी जा सकती है।" भारतीय इतिहास में उनकी छवि एक कर्मठ और जुझारू व्यक्तित्व वाले ऐसे इंसान की है, जो अपनी मृत्यु के इतने वर्षों बाद भी अनेक भारतवासियों के आदर्श और पथप्रदर्शक हैं। 
 डॉ. मुखर्जी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्रथम श्रेणी में 1921 में प्राप्त की थी। इसके बाद उन्होंने 1923 में एम.ए. और 1924 में बी.एल. किया। वे 1923 में ही सीनेट के सदस्य बन गये थे। उन्होंने अपने पिता की मृत्यु के बाद कलकता उच्च न्यायालय में एडवोकेट के रूप में अपना नाम दर्ज कराया। बाद में वे सन 1926 में 'लिंकन्स इन' में अध्ययन करने के लिएइंग्लैंड चले गए और 1927 में बैरिस्टर बन गए।

   वे हिन्दुओं के प्रवक्ता के रूप में उभरे और शीघ्र ही 'हिन्दू महासभा' में शामिल हो गए। सन 1944 में वे इसके अध्यक्ष नियुक्त किये गए थे।

राष्ट्रीय एकात्मता एवं अखण्डता के प्रति आगाध श्रद्धा ने ही डॉ. मुखर्जी को राजनीति के समर में झोंक दिया। अंग्रेज़ों की 'फूट डालो व राज करो' की नीति ने 'मुस्लिम लीग' को स्थापित किया था। डॉ. मुखर्जी ने 'हिन्दू महासभा' का नेतृत्व ग्रहण कर इस नीति को ललकारा। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उनके हिन्दू महासभा में शामिल होने का स्वागत किया, क्योंकि उनका मत था कि हिन्दू महासभा में मदन मोहन मालवीय जी के बाद किसी योग्य व्यक्ति के मार्गदर्शन की जरूरत थी। कांग्रेस यदि उनकी सलाह को मानती तो हिन्दू महासभा कांग्रेस की ताकत बनती तथा मुस्लिम लीग की भारत विभाजन की मनोकामना पूर्ण नहीं होती।

महात्मा गांधी की हत्या के बाद डॉ. मुखर्जी चाहते थे कि हिन्दू महासभा को केवल हिन्दुओं तक ही सीमित न रखा जाए अथवा यह जनता की सेवा के लिए एक गैर-राजनीतिक निकाय के रूप में ही कार्य न करे। वे 23 नवम्बर, 1948 को इस मुद्दे पर इससे अलग हो गए। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें अंतरिम सरकार में उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री के रूप में सम्मिलित किया था। डॉ. मुखर्जी ने लियाकत अली ख़ान के साथ दिल्ली समझौते के मुद्दे पर 6 अप्रैल, 1950 को मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। मुखर्जी जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संघचालक गुरू गोलवलकर जी से परामर्श करने के बाद 21 अक्तूबर, 1951 को दिल्ली में 'भारतीय जनसंघ' की नींव रखी और इसके पहले अध्यक्ष बने। सन 1952 के चुनावों में भारतीय जनसंघ ने संसद की तीन सीटों पर विजय प्राप्त की, जिनमें से एक सीट पर डॉ. मुखर्जी जीतकर आए। उन्होंने संसद के भीतर 'राष्ट्रीय जनतांत्रिक पार्टी' बनायी, जिसमें 32 सदस्यलोक सभा तथा 10 सदस्य राज्य सभा से थे, हालांकि अध्यक्ष द्वारा एक विपक्षी पार्टी के रूप में इसे मान्यता नहीं मिली।

    जिस समय अंग्रेज़ अधिकारियों और कांग्रेस के बीच देश की स्वतंत्रता के प्रश्न पर वार्ताएँ चल रही थीं और मुस्लिम लीग देश के विभाजन की अपनी जिद पर अड़ी हुई थी, श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इस विभाजन का बड़ा ही कड़ा विरोध किया। कुछ लोगों की मान्यता है कि आधे पंजाब और आधे बंगाल केभारत में बने रहने के पीछे डॉ. मुखर्जी के प्रयत्नों का ही सबसे बड़ा हाथ है।

उस समय जम्मू-कश्मीर का अलग झंडा और अलग संविधान था। वहाँ का मुख्यमंत्री भी प्रधानमंत्री कहा जाता था। लेकिन डॉ. मुखर्जी जम्मू-कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने जोरदार नारा भी दिया कि- एक देश में दो निशान, एक देश में दो प्रधान, एक देश में दो विधान नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे। अगस्त, 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि "या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊँगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा।"

जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने पर डॉ. मुखर्जी को 11 मई, 1953 में शेख़ अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली सरकार ने हिरासत में ले लिया, क्योंकि उन दिनों कश्मीर में प्रवेश करने के लिए भारतीयों को एक प्रकार से पासपोर्ट के समान एक परमिट लेना पडता था और डॉ. मुखर्जी बिना परमिट लिए जम्मू-कश्मीर चले गए थे, जहाँ उन्हें गिरफ्तार कर नजरबंद कर लिया गया। वहाँ गिरफ्तार होने के कुछ दिन बाद ही 23 जून, 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु का खुलासा आज तक नहीं हो सका है। भारत की अखण्डता के लिए आज़ाद भारत में यह पहला बलिदान था। इसका परिणाम यह हुआ कि शेख़ अब्दुल्ला हटा दिये गए और अलग संविधान, अलग प्रधान एवं अलग झण्डे का प्रावधान निरस्त हो गया। धारा 370 के बावजूद कश्मीर आज भारत का अभिन्न अंग बना हुआ है। इसका सर्वाधिक श्रेय डॉ. मुखर्जी को ही दिया जाता है। 

शनिवार, 21 जून 2014

रेल किराया वृद्धि कड़वी दवा : रेलवे की व्यवस्थाओं व् सुविधाओं के विस्तार के लिए पीनी ही पड़ेगी ।

भारतीय रेल पिछले कुछ वर्षो से घाटे में चल रही है। सिर्फ एक ही रास्ता है कि रेलवे की सुविधाओं का उपयोग करने वाले भुगतान करें तभी भारतीय रेल पिछले कुछ वर्षो से घाटे में चल रही है। सिर्फ एक ही रास्ता है कि रेलवे की सुविधाओं का उपयोग करने वाले भुगतान करें तभी रेल चल सकती है। पिछले कुछ वर्षों से यात्री सेवाओं से होने वाले नुकसान की भरपाई माल भाड़े से की जाती रही  है,इस कारण  माल भाडे पर भी काफी  दबाव बन गया है। यात्री  किराया वं मालभाड़ों में यह वृद्धि ईधन समायोजन घटक (एफएसी) की वृद्धि को मिलाकर है। पांच फरवरी को जब तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार सत्ता में थी तब रेलवे बोर्ड ने माल भाडे में पांच प्रतिशत और यात्री किराए में 10 प्रतिशत वृद्धि का प्रस्ताव किया था। यह प्रस्ताव रेलवे के माल भाडे और यात्री किराए को तर्कसंगत बनाने के लिए किया गया था और माले भाडे में एक अपे्रल से तथा यात्री किराए में एक मई से बढ़ोत्तरी होनी थी।तब तक अंतरिम बजट भी नहीं आया था लेकिन, ऎसी उम्मीद की जा रही थी कि एक मई तक आम चुनाव संपन्न हो जाएंगे। रेलवे के इस प्रस्ताव में कहा गया था कि इस वृद्धि से उसे 7 हजार 900 करोड़ रूपए का अतिरिक्त राजस्व प्राप्त होगा। इस निर्णय को लेकर तत्कालीन रेल मंत्री मलिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से 11 फरवरी को भेंट की थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री ने इस वृद्धि को मंजूरी दे दी थी और सुझाव दिया था कि माल भाड़ा और यात्री किराया वृद्धि को एक मई से लागू किया जाना चाहिए।
  रेलवे बोर्ड ने आम चुनाव परिणामों के आने के दिन 16 मई की शाम को किराया वृद्धि की घोषणा की थी। हालांकि, देर शाम तत्कालीन रेल मंत्री ने आम चुनाव में संप्रग की हार के बाद इस वृद्धि को स्थगित करने के लिए कहा। हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री और रेल मंत्री के निर्णय को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार के रेल मंत्री एस. सदानंद गौड़ा ने सिर्फ इसे लागू किया है।
भारतीय रेल आम लोगों का चाहे सबसे बड़ा सहारा हो लेकिन इंफ्रास्ट्रक्चर, परिचालन एवं यात्री सुविधाओं में उम्मीद के अनुरूप सुभारतीय रेल पिछले कुछ वर्षो से घाटे में चल रही है। सिर्फ एक ही रास्ता है कि रेलवे की सुविधाओं का उपयोग करने वाले भुगतान करें तभी भारतीय रेल पिछले कुछ वर्षो से घाटे में चल रही है। सिर्फ एक ही रास्ता है कि रेलवे की सुविधाओं का उपयोग करने वाले भुगतान करें तभी रेल चल सकती है। पिछले कुछ वर्षों से यात्री सेवाओं से होने वाले नुकसान की भरपाई माल भाड़े से की जाती रही  है,इस कारण  माल भाडे पर भी काफी  दबाव बन गया है। यात्री  किराया वं मालभाड़ों में यह वृद्धि ईधन समायोजन घटक (एफएसी) की वृद्धि को मिलाकर है। पांच फरवरी को जब तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार सत्ता में थी तब रेलवे बोर्ड ने माल भाडे में पांच प्रतिशत और यात्री किराए में 10 प्रतिशत वृद्धि का प्रस्ताव किया था। यह प्रस्ताव रेलवे के माल भाडे और यात्री किराए को तर्कसंगत बनाने के लिए किया गया था और माले भाडे में एक अपे्रल से तथा यात्री किराए में एक मई से बढ़ोत्तरी होनी थी।तब तक अंतरिम बजट भी नहीं आया था लेकिन, ऎसी उम्मीद की जा रही थी कि एक मई तक आम चुनाव संपन्न हो जाएंगे। रेलवे के इस प्रस्ताव में कहा गया था कि इस वृद्धि से उसे 7 हजार 900 करोड़ रूपए का अतिरिक्त राजस्व प्राप्त होगा। इस निर्णय को लेकर तत्कालीन रेल मंत्री मलिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से 11 फरवरी को भेंट की थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री ने इस वृद्धि को मंजूरी दे दी थी और सुझाव दिया था कि माल भाड़ा और यात्री किराया वृद्धि को एक मई से लागू किया जाना चाहिए।
  रेलवे बोर्ड ने आम चुनाव परिणामों के आने के दिन 16 मई की शाम को किराया वृद्धि की घोषणा की थी। हालांकि, देर शाम तत्कालीन रेल मंत्री ने आम चुनाव में संप्रग की हार के बाद इस वृद्धि को स्थगित करने के लिए कहा। हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री और रेल मंत्री के निर्णय को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार के रेल मंत्री एस. सदानंद गौड़ा ने सिर्फ इसे लागू किया है।
भारतीय रेल आम लोगों का चाहे सबसे बड़ा सहारा हो लेकिन इंफ्रास्ट्रक्चर, परिचालन एवं यात्री सुविधाओं में उम्मीद के अनुरूप सुधार नहीं हो पाया है।  आजादी के बाद 67 वर्षों में हम केवल 11 हजार किलोमीटर रेल नेटवर्क का ही निर्माण कर सके हैं।
करीब 160 साल पहले शुरू की गई रेल सेवा आज पूरे भारत की जीवन रेखा बन गई है। आज करीब 16 लाख कर्मचारियों और 7 हजार से अधिक स्टेशनों के साथ यह विश्व की चौथी सबसे बड़ी रेल सेवा बन गई है। भारतीय रेल प्रतिदिन 11 हजार ट्रेनों का परिचालन करती है जो करीब 65 हजार किलोमीटर रेल मार्ग पर दौड़ती है। आज ट्रेन की सवारी रोजाना ढ़ाई करोड़ से अधिक लोग कर रहे हैं।ऐसी स्थिति  इन यात्रियों को सुविधा व् सुरक्षा मुहैया कराने के लिये ज्यादा उपाय व् संसाधन उपलब्ध करवाने होंगे,और यह सब काम तभी हो  सकेंगे, जब हमारा आर्थिक तंत्र पूर्ण स्वस्थ होगा। बीमार अर्थतंत्र रेलवे को भी नाकारा, सुविधाहीन व् असुरक्षित  देगा।इन सब बातों के  मद्देनजर रेल मंत्री ने कठिन, लेकिन सही निर्णय लिया है। घाटे में चलने वाली रेलवे घटिया सेवा देगी। उसके पास बिल भुगतान के लिए भी संसाधन नहीं होगा। हमे सोचना  है कि हमे  विश्व स्तरीय रेल सेवाएं चाहिए या इसे जीर्णशीर्ण बीमार हाल में रहने दिया जाए। बीमारी का  इलाज दवा  से ही होता है  औ हमें यह कड़वी दवा रेलवे की व्यवस्थाओं व् सुविधाओं के विस्तार के लिए पीनी ही पड़ेगी  ।  नहीं हो पाया है।  आजादी के बाद 67 वर्षों में हम केवल 11 हजार किलोमीटर रेल नेटवर्क का ही निर्माण कर सके हैं।
करीब 160 साल पहले शुरू की गई रेल सेवा आज पूरे भारत की जीवन रेखा बन गई है। आज करीब 16 लाख कर्मचारियों और 7 हजार से अधिक स्टेशनों के साथ यह विश्व की चौथी सबसे बड़ी रेल सेवा बन गई है। भारतीय रेल प्रतिदिन 11 हजार ट्रेनों का परिचालन करती है जो करीब 65 हजार किलोमीटर रेल मार्ग पर दौड़ती है। आज ट्रेन की सवारी रोजाना ढ़ाई करोड़ से अधिक लोग कर रहे हैं।ऐसी स्थिति  इन यात्रियों को सुविधा व् सुरक्षा मुहैया कराने के लिये ज्यादा उपाय व् संसाधन उपलब्ध करवाने होंगे,और यह सब काम तभी हो  सकेंगे, जब हमारा आर्थिक तंत्र पूर्ण स्वस्थ होगा। बीमार अर्थतंत्र रेलवे को भी नाकारा, सुविधाहीन व् असुरक्षित  देगा।इन सब बातों के  मद्देनजर रेल मंत्री ने कठिन, लेकिन सही निर्णय लिया है। घाटे में चलने वाली रेलवे घटिया सेवा देगी। उसके पास बिल भुगतान के लिए भी संसाधन नहीं होगा। हमे सोचना  है कि हमे  विश्व स्तरीय रेल सेवाएं चाहिए या इसे जीर्णशीर्ण बीमार हाल में रहने दिया जाए। बीमारी का  इलाज दवा  से ही होता है  औभारतीय रेल पिछले कुछ वर्षो से घाटे में चल रही है। सिर्फ एक ही रास्ता है कि रेलवे की सुविधाओं का उपयोग करने वाले भुगतान करें तभी भारतीय रेल पिछले कुछ वर्षो से घाटे में चल रही है। सिर्फ एक ही रास्ता है कि रेलवे की सुविधाओं का उपयोग करने वाले भुगतान करें तभी रेल चल सकती है। पिछले कुछ वर्षों से यात्री सेवाओं से होने वाले नुकसान की भरपाई माल भाड़े से की जाती रही  है,इस कारण  माल भाडे पर भी काफी  दबाव बन गया है। यात्री  किराया वं मालभाड़ों में यह वृद्धि ईधन समायोजन घटक (एफएसी) की वृद्धि को मिलाकर है। पांच फरवरी को जब तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार सत्ता में थी तब रेलवे बोर्ड ने माल भाडे में पांच प्रतिशत और यात्री किराए में 10 प्रतिशत वृद्धि का प्रस्ताव किया था। यह प्रस्ताव रेलवे के माल भाडे और यात्री किराए को तर्कसंगत बनाने के लिए किया गया था और माले भाडे में एक अपे्रल से तथा यात्री किराए में एक मई से बढ़ोत्तरी होनी थी।तब तक अंतरिम बजट भी नहीं आया था लेकिन, ऎसी उम्मीद की जा रही थी कि एक मई तक आम चुनाव संपन्न हो जाएंगे। रेलवे के इस प्रस्ताव में कहा गया था कि इस वृद्धि से उसे 7 हजार 900 करोड़ रूपए का अतिरिक्त राजस्व प्राप्त होगा। इस निर्णय को लेकर तत्कालीन रेल मंत्री मलिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से 11 फरवरी को भेंट की थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री ने इस वृद्धि को मंजूरी दे दी थी और सुझाव दिया था कि माल भाड़ा और यात्री किराया वृद्धि को एक मई से लागू किया जाना चाहिए।
  रेलवे बोर्ड ने आम चुनाव परिणामों के आने के दिन 16 मई की शाम को किराया वृद्धि की घोषणा की थी। हालांकि, देर शाम तत्कालीन रेल मंत्री ने आम चुनाव में संप्रग की हार के बाद इस वृद्धि को स्थगित करने के लिए कहा। हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री और रेल मंत्री के निर्णय को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार के रेल मंत्री एस. सदानंद गौड़ा ने सिर्फ इसे लागू किया है।
भारतीय रेल आम लोगों का चाहे सबसे बड़ा सहारा हो लेकिन इंफ्रास्ट्रक्चर, परिचालन एवं यात्री सुविधाओं में उम्मीद के अनुरूप सुधार नहीं हो पाया है।  आजादी के बाद 67 वर्षों में हम केवल 11 हजार किलोमीटर रेल नेटवर्क का ही निर्माण कर सके हैं।
करीब 160 साल पहले शुरू की गई रेल सेवा आज पूरे भारत की जीवन रेखा बन गई है। आज करीब 16 लाख कर्मचारियों और 7 हजार से अधिक स्टेशनों के साथ यह विश्व की चौथी सबसे बड़ी रेल सेवा बन गई है। भारतीय रेल प्रतिदिन 11 हजार ट्रेनों का परिचालन करती है जो करीब 65 हजार किलोमीटर रेल मार्ग पर दौड़ती है। आज ट्रेन की सवारी रोजाना ढ़ाई करोड़ से अधिक लोग कर रहे हैं।ऐसी स्थिति  इन यात्रियों को सुविधा व् सुरक्षा मुहैया कराने के लिये ज्यादा उपाय व् संसाधन उपलब्ध करवाने होंगे,और यह सब काम तभी हो  सकेंगे, जब हमारा आर्थिक तंत्र पूर्ण स्वस्थ होगा। बीमार अर्थतंत्र रेलवे को भी नाकारा, सुविधाहीन व् असुरक्षित  देगा।इन सब बातों के  मद्देनजर रेल मंत्री ने कठिन, लेकिन सही निर्णय लिया है। घाटे में चलने वाली रेलवे घटिया सेवा देगी। उसके पास बिल भुगतान के लिए भी संसाधन नहीं होगा। हमे सोचना  है कि हमे  विश्व स्तरीय रेल सेवाएं चाहिए या इसे जीर्णशीर्ण बीमार हाल में रहने दिया जाए। बीमारी का  इलाज दवा  से ही होता है  औ हमें यह कड़वी दवा रेलवे की व्यवस्थाओं व् सुविधाओं के विस्तार के लिए पीनी ही पड़ेगी  । 

बुधवार, 3 जुलाई 2013

खाद्य सुरक्षा अध्यादेश :कांग्रेस की खावो. खिलावो,सत्ता पावो राजनीती

  खाद्य सुरक्षा अध्यादेश को कैबिनेट की मंजूरी दे दी गई है। अब अध्यादेश को सीधे राष्ट्रपति के पास भेजा जाएगा। राष्ट्रपति से हरी झंडी मिलने के बाद ये अध्यादेश लागू हो जाएगा।
  सोनिया गांधी 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को पुन:सत्तासीन करने के लिए खाद्य सुरक्षा बिल को शीघ्र लागू करवाना चाहती थी । किन्तु उनके सहयोगी दलों का भी यह कहना था कि सरकार इस बिल पर पहले संसद में चर्चा करें, उसके बाद बिल को मंजूरी दी जावे, लेकिन सरकार ने दूसरा रास्ता अपनाते हुए खाद्य सुरक्षा अध्यादेश को कैबिनेट की मंजूरी दे दी है।
  कांग्रेस की इच्छा देश के कमजोर व् गरीब परिवारों को आत्मनिर्भर बनाने की नहीं बल्कि  उन्हें अकर्मण्य,नाकारा व भिखमंगा बनाने की है .कांग्रेस को उनकी गरीबी या भूख की परवाह  नही बल्कि अपनी वोट बैंक बढ़ाने की ज्यादा चिंता है .अगर कांग्रेस को गरीबों की इतनी ही चिंता होती और ईमानदारी से गरीबी हटाने का प्रयास करती तो भारत से गरीबी कभी की समाप्त हो चुकी होती .लेकिन कान्ग्रेस जानती है की भारत से  गरीबी जिस दिन समाप्त हो जाएगी,कांग्रेस भी सत्ता में नही रह पायेगी .